Sunday, June 28, 2020

वेदना

दृश्यों और बिंबों के सामानांतर चलती
एक आवाज़ की महीन सी रेख
जिसे सुनते ही कुछ भीगा भीगा सा
जमने लगता है भीतर
मैं 'क्लैपर बोर्ड' पर 'क्लैप' देकर
फ्रेम से बाहर हो जाना चाहती हूँ
पर मेहसूसती हूँ कोई हरी बेल सी
बाहर से भीतर खींच रही हो
मन की वेदना पर उगा जैसे
क्षीर चम्पा रक्त
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आरती

Saturday, December 7, 2019

धुंधली तस्वीरें भाती हैं मुझे
पता है क्यूँ
भरी आँखों की तासीर लिए होती हैं...

(आरती)

और एक दिन तितली के नुचे हुए पंख
उग आयेंगे धरती के भीतर
बहुत भीतर कहीं...
जहाँ बची होगी नमी
संवेदना की
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आरती

Monday, August 19, 2019

पींग

दोनों साथ चल रहे थे
तीसरा कोई नहीं था
तलवों की थिरकन के साथ
एक हाथ छू जाता दूसरा हाथ
आसमां तक जाती मन की पींग
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आरती

Tuesday, May 21, 2019

क़िरदार के भीतर

बहुत सी चीज़ें ख़ुद में कुछ न कुछ समेटे रहती हैं
उन सिमटी चीज़ों को कभी ग़ौर से देखा है ?

एक नज़र की दरक़ार लिए होती हैं 

पेड़ की छाँव में बैठे हुए मैंने
ज़मीन पर बनते धूप के धब्बों में
बीती बारिश के निशाँ महसूसे हैं
हाँ ठीक इसी जगह तो गिरी थीं छोटी छोटी बुँदकियाँ   

स्टेट लाइब्रेरी में अमृता प्रीतम की रसीदी टिकट ढूंढते हुए
मैंने उसी किताब की जिल्द में इमरोज़ को महसूसा
जो गर्मी में देर तक हाथ में पकड़ने से अपना रंग छोड़ गयी थी

सुबह नौ बजे की बस रोज़गार तक जाने का ज़रिया थी
एक रोज़ बगल की सीट पर बैठी अस्सी-साला महिला की आँखों में
मैंने सिमटी हुई भूख देखी थी
रोटी का पहला कौर तोड़ते ही छोड़ दी होगी, आशंका में
रात का जुगाड़ न हो पाया तो !

महसूसते हुए मैंने हर दफा पाया
क़िरदार के भीतर भी क़िरदार छिपे होते हैं
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आरती

  

Monday, May 6, 2019

अधूरी नज़्म

शब् की पेशानी पर एक नर्म बोसा था क्या
या तुमने एक नज़्म का सिरा खोला था
मैं सवेरे किसी प्लेटफार्म की बेंच पर बैठी मुन्तज़िर थी
कब सिरा खोजते तुम 
किसी रेल की खिड़की पर दिख जाओ
या शायद जब मैं पीछे मुडूं तुम्हारे तलवों की आहट पर
सुफ़ेद कुर्ते की बांह मोड़ते तुम किसी किताब की जिल्द पर
मेरा नाम उकेरते दिख जाओ
मैं यूँ अटकी हूँ नज़्म के बीचों बीच जैसे
हलक़ में कोई इज़हार अटका हो
सुनो! तुम आओ जब...दूसरा सिरा साथ लेते आना
या इस दफा मेरे नाम कोई मुकम्मल नज़्म कहना
मैं सीख गयी हूँ
अधूरी नज़्म में मिसरे जोड़ना
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आरती

Wednesday, October 24, 2018

फिलर

रंगों से सने पैलेट को देख
उँगलियों को तलब लगती है
ब्रश थाम लेने की
कभी जब खनकने लगती हैं
विंड चाइम में पिरोई सीपियाँ
उतरने लगती है हथेली में
समंदर की वो पहली छुअन
ब्लैक कॉफ़ी में ब्रश डुबोकर
उस दिन उकेरा था अपना नाम
तुम्हारे कुर्ते पर
धुलेगा तो छूट जाएगा रंग
नाम न मिटेगा मन से...तुमने कहा था
कभी मुड़कर देखूं तो ये रंग,छुअन,तुम्हारा कहा
सब बेमानी लगता है
जैसे किसी कहानी में गढ़े हों किरदार बिना वजूद वाले
या रेडियो में समय भरने के लिए कोई फिलर
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आरती